Wednesday, May 11, 2011

हकलाने से आसानी से उबरा जा सकता है।

हकलाना या अटक-अटक कर बोलना स्वर-यंत्र की खामी न होकर मन की बेचैनी है। यह बात ज्यादातर लोग नहीं जानते। दरअसल, यह एक ऐसी समस्या है जिसकी शुरुआत आम तौर पर बचपन से तब होती है जब बच्चा बोलना सीखता है। यह मन की निराशा, जीभ के जोड़ में मामूली कमी या कई बार असाधारण तनाव से जुड़ी होती है। किसी घर में अगर हर समय कलह रहे, बच्चों को बोलना सीखने की उम्र में ही मार-डाँट पड़ने लगे, उसे तुतलाने और हकलाने पर पूरा ध्यान और जरूरी टोकाटाकी न हो तो परेशानी बन जाती है। इसके अलावा, स्कूल में पढ़ाई-लिखाई या किसी दूसरी चीज को लेकर बहुत अधिक तनाव रहे तो उसका असर अनजाने में ही हकलाहट की परेशानी खड़ी कर देती है। इसके अलावा, संगी-साथियों, भाई-बहन द्वारा चिढ़ाए जाने और बड़े-बूढ़ों के बार-बार इस ओर ध्यान दिलाने पर बच्चों की जिद से भी यह दोष स्थायी हो सकता है। सचाई यह भी है कि हकलाने वाला व्यक्ति अपने ख्यालों में जरा भी नहीं अटकता। अगर वह अकेले में खुद से बातें करे तो उसे कोई परेशानी नहीं होती। गाते समय भी उसकी जुबान में कोई अटक नहीं पैदा होती। उसके स्वर यंत्र और स्नायु तंत्र की जांच करें तो उनमें भी कोई कमी नहीं मिलती। यही वजह है कि हकलाने से आसानी से उबरा जा सकता है।
यदि कोई हकलाने या अटक-अटक कर बोलने वाला सदस्य घर में हो तो उसमें सही बोलने की ललक पैदा करें। उसे यह समझाया जो कि उसका स्वर यंत्र भी उतना ही समर्थ है जितना कि दूसरे लोगों का। इस पर भरोसा जागा तो ही वह सही बोलने का प्रयास करेगा।
यकीन जानिए, हकलाहट से मन ही मन परेशानी तो होती है, पर इसके चलते शर्मिदा होने की कतई जरूरत नहीं। ऐसे लोगों के लिए सलाह यही है कि वे लोगों से मिले-जुलें, और सुधार कर बातचीत करने का प्रयास करते रहें।  अपने भीतर आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान जगाएं, तभी इस समस्या से छुटकारा मिल सकेगा। किसी स्पीच थैरेपिस्ट से मिलकर अपनी समस्या का खुलासा करें। थैरेपिस्ट आपकी समस्या के बुनियादी कारणों को समझ कर सही उच्चारण के उपाय सुझा सकते हैं।
सही बोलने में झिझके नहीं, वैसा ही अनुभव करें जैसा सामान्य उच्चरण क्षमता होने पर आप अनुभव करते। अपनी खामी पर शर्मिदा हुए बिना बोलने का अभ्यास करते रहें, क्योंकि यह आपकी इच्छाशक्ति पर ज्यादा निर्भर है।
तैयारी डेस्क

Monday, January 31, 2011

हकलाहट -----हिंदी फिल्मों


संवेदना का टोटा
एक अहम् सवाल यह है कि आखिर कब तक समाज और मीडिया द्वारा शारीरिक

और मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण व्यक्तिओं को बेबस और बेचारा समझा जाता रहेगाक्या मानवीय संवेदनाओं कीपरिधि में आकर भी हम कभी सोचेंगे और निःशक्तजनों या फिर हकलाने वाले लोगों के प्रति जिम्मेदाराना रवैयाअपनाएंगे.
हिंदी फिल्मों के बारे में शायद सबसे प्रचलित वाक्य यह है कि ये समाज का आईना हैं. लेकिन क्या इस आईने में उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं जो शारीरिक या मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण हैं? जब पूरी दुनिया एक-दूसरे के करीब आ रही है, तो आखिर कोई पीछे कैसे रह सकता है. हो सकता है कि इंसान पक्षपात करता हो पर कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह सभी चीजों में मुनाफे का मौका तलाशता है. एक जमाना था जब यह मान के चला जाता था कि निःशक्त व्यक्ति अपने परिवार और समाज पर बोझ हैं. कमोबेश यही धारणा आज भी हमारे मन में बसी हुई है. इन सबके बावजूद हिंदी सिनेमा जगत में इन दिनों विकलांगता और विकलागों को सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने कि बेताबी के निहितार्थ को आसानी से समझा जा सकता है.
नवम्बर 2010 में रिलीज हुई फ़िल्म 'गोलमाल 3' में एक पात्र से हकलाहट का जबरन अभिनय करवाकर हास्य पैदा करने कि कोशिश की गई है. इस फ़िल्म में एक और पात्र है जो बोल नहीं सकता लेकिन अच्छी तरह से सुन सकता है और इस पात्र का अभिनय पूरी तरह से गलत है, क्योकि जो व्यक्ति सुन सकता है वह बोल भी सकता है. आजकल लगभग हर फ़िल्म में ऐसे रोल रखे जाते हैं जो शारीरिक रूप से अक्षम हैं या फिर हकलाते या तुतलाते हैं. यदि हम पिछले समय को देखें तो 'ब्लैक', 'इकबाल', 'तारे जमीं पर'  और 'पा' ऐसी बेहतरीन फिल्में हैं जिन्होंने निःशक्त लोगों के प्रति समाज में सकारात्मक सन्देश दिया है. और इन फिल्मों की सफलता ने बॉलीवुड को एक नया विषय दिया, जिसे अब हर फ़िल्म निर्माता आजमाना चाहता है.
यहाँ विकलांगता पर बनी फिल्मों के सकारात्मक पहलूओं पर चर्चा करना सामयिक होगा. विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन, मध्यप्रदेश में रिसर्च आफीसर डॉनिवेदिता वर्मा कहती हैं निःशक्तता को पर्दे पर प्रदर्शित करने से इस चुनौती का सामना कर रहे लोगों और उनके परिवार को संबल मिलता है और वे कुछ हद तक मानसिक और सामाजिक दबाव से मुक्त हो जाते हैं. साथ ही समाज में इन विषयों पर जागरूकता आती है. डॉ. वर्मा आगे कहती हैं फिल्मों में हकलाहट को व्यंग्यात्मक रूप में न दिखाकर उसके समाधानात्मक पक्ष को ज्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिए. वे कहती हैं हर व्यक्ति में कोई न कोई कमी है, इसलिए हमें इन्हें दूर करने के लिए एक-दूसरे का सहयोग और उत्साहवर्धन करना चाहिए.
पर एक अहम् सवाल यह है कि ये फिल्में शारीरिक तौर पर चुनौतीपूर्ण लोगों के प्रति कितनी संवेदनशील हैं. 'ब्लैक' जैसी संजीदा फ़िल्म ने हिंदी फ़िल्म उद्योग को चुनौतीपूर्ण चरित्रों को पर्दे पर उतारने कि प्रेरणा जरूर दी लेकिन उसके बात बनी ऐसी फिल्मों में निःशक्त पात्रों के प्रति आमतौर पर संवेदनशीलता का अभाव ही दिख रहा है. हमेशा कहानियों, चरित्रों और नयेपन की कमी से जूझने वाले बॉलीवुड ने शारीरिक अक्षमता जैसे गंभीर विषय को यहाँ मसाले में लपेट दिया. पुरानी फ़िल्म 'दोस्ती' में दो शारीरिक अक्षम दोस्त जिस तरह से एक-दूसरे से भावनात्मक रूप से जुड़े देखे जा सकते हैं, वैसी भावना या सम्बन्ध ताजा फिल्मों में कहीं नहीं दिखते. निर्माता और निर्देशक व्यवसायिकता और अलग करने के चक्कर में कुछ भी कर सकते हैं.
विकलांगता पर बनी फिल्में समाज को जो नकारात्मक सन्देश दे रही है, वह चिंता का विषय है. क्षेत्रीय विकलांग पुनर्वास केंद्र, भोपाल के अनुदेशक श्यामसिंह मेवाडा कहते हैं ये फिल्में समाज में विकलांगों के प्रति गलत सोच को बढ़ावा दे रही है. इससे लोग विकलांगों को दया या हंसी का पात्र समझने लगते हैं, और विकलांगों की सामाजिक समस्या जस की तस बनी रहती है. इंदौर में बधिरों कि शिक्षा से जुड़े सुनीलसिंह तोमर कहते हैं जब फिल्मों में
निःशक्तजनों को बेबस के रूप में पेश किया किया जाता है तब लोग उन्हें कमजोर और नाकाबिल समझने पर मजबूर हो जाते है. और यह स्थिति विकलांगों के पुनर्वास में बाधा उत्पन्न करती है.
हम कह सकते हैं कि निःशक्तता पर बनी फिल्में समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में कारगर हो सकती हैं, लेकिन इसके लिए फ़िल्म निर्माताओं, लेखकों और अभिनेताओं को विकलांगता के प्रति अधिक जागरूक और संवेदनशील होना पड़ेगा. इसके बाद हम देखेंगे कि बॉलीवुड पर निःशक्तता और इसका सामना कर रहे व्यक्तिओं के जीवन पर बेहतर फिल्में बनाने का सिलसिला शुरू होगा. फिल्मों में यह दिखाया जाना ज्यादा श्रेयस्कर होगा कि विकलांग व्यक्ति किस तरह तमाम बाधाओं को पार करते हुए सामान्य जन के साथ कंधे से कन्धा मिलकर चल रहे हैं और अपनी शेष क्षमताओं का उपयोग कर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं.
अमितसिंह कुशवाह,

Saturday, January 29, 2011

हकलाहट कि जेल

"हकलाहट कि जेल ( HKJ )  दोस्तों आप को आज मै अपनी बीती सुनाता हू
hkj में मै अपनी लाईफ को घुट घुट क़र  जीता था हकलाहट मुझे मनेज करती रहती और मै HKJ कि हकलाहट के हुक्कम सहता रहा इस जेल में भारत कि  एक करोड़ आबादी बंद है यह एक अनोखी जेल है इसमें मार तो बहुत पड़ती है पर बताने कि हिम्मत नहीं होती, चिल्लाने का सहस नहीं होता,रोने से दिल नहीं भरता, हर तीन चार  मिनिट में पिटाई होती है,पर अपनों से कहने  का सहस नहीं होता ,HKJ में मेरा कुछ नहीं चलता  मै हकलाहट के द्वारा मेनेज किया जाता मै बोलना चाहता
"एक गिलास पानी लाओ "
                                         पर सिपाही आता और कहता मेरे अनुसार बोलो -------" पानी लाओ एक गिलास
दूसरा सिपाही आता बोलता  मेरे अनुसार बोलो............................ "लाओ न एक गिलास पानी "
जब दोनों सिपाही एक साथ आते तो मै किसकी मानता ? इसलिया  मै पानी कि जगह water  बोलता और दोनों सिपाहियों से जान बचने के लिए" एक गिलास वाटर लाओ " बोलता |
जब जेलर साहब आते तब तो पानी, जल, वाटर , बोलना संभव नहीं था ,मुहु कि ओर इशारा करता और बोलता "एक गिलास .....lao ." कुछ कैदी जो समझदार थे वह तो समझ जाते कि पानी चाहिया , lekin  जो   saitani      kism   के  कैदी थे ve  bolte थे daru चाहिया  kya |  मै  अत्याचारों को बताना चाहता था लोगो को,पापाजी को ,मम्मी जी को , दोस्तो को ,पर हिम्मत नहीं थी | आप को और भी दर्द सुनाता हू सायद आप भी मेरे जैसा दर्द झेले हो ---------------------------------------
hkj  में मै एक बार  ENT डाक्टर साहब के पास pahucha  शायद मुझे अपनी फ़रिअद सुनानी थी  लेकिन डाक्टर साहब कि केबिन बे pahucha  और देखा ३-४ रोगी और बैठे है तभी  मन में HKJ  के सिपाही आ धमके, और बोले यदि tumne  अपना दर्द बताया तो दुसरे रोगी क्या बोलेगे  तुम्हारी तो इज्ज़त गई ,हशी का पत्र बनोगे  मत कहो कि मै हकलाना  के इलाज के liye  आया हू | कह दो डॉक्टर साहब बुखार है | और HKJ के सिपाहियों कि बात माननी पड़ी और कहना चाहा " डॉक्टर साहब मुझे बुखार है " लेकिन दुसरे सिपाही ने फिर कहा कि आप बुखार को फीवर बोलो मै उसकी भी बात maanaa और तय किया कि अब " डॉक्टर साहब मुझे फीवर है"  बोलना है लेकिन जेलर साहब भी साथ में थे उहोने कहा आप फीवर को ffffffffffeever  बोलोगे ठीक है
 मै बेचारा प्रार्थना किया कि जेलर साहब  यदि मै "डॉक्टर साहब मेरा शारीर गर्म है" बोलु तो कैसा रहेगा जेलर साहब मंजूरी देदिए | अब मै ख़ुशी से पागल हो गया और स्पीड 500ward / मिनट के साथ बोला तो डॉक्टर साहब समझ नहीं पाए कि  "मेरा शारीर गरम है " yah  बोला, vah samjhe कि  "डॉक्टर साहब  मेरा शारीर gam  में है " yah  बोला,  तो डॉक्टर साहब बोले ghar jao  santi से rah,o ladiee मत किया karo,   gam  apne आप ठीक हो jaye ga,  मै bina thanks के chember से bahar आ गया
और iswar को thnks कहा कि यदि डॉक्टर साहब sahi  sun lete कि मेरा शारीर गरम है  ,तो bina  injection के नहीं chhodte
thanks स्पीड, jo aapne आप bad गई और मै injection से bach गया
thaks
B.K.Singh (Psychologist &stammerer)
www.stammeringlife.com
suraj stammering care centre Maihar MP
09200824528,09300273703,